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Friday 23 May 2014

बंज़र छातियाँ - सुधीर मौर्य

कमर पे रखे हुए 
घड़े से छलकते हुए पानी से 
खाली हुए घड़े को 
वापस भर देता है 
उसकी आँख से बहता हुआ पानी 
लोग करते हैं अश्लील इशारे 
पानी से भीग कर  
अधफटे वस्त्र 
चिपक जाते हैं नितम्बो से  
आँख झुका कर निकल जाती है वह 
फ़िक़रे कसती हुई गलियों से
आँगन में सास की गोद में रोते बच्चे को 
उठा लेती है  तड़प कर 
सीने से भींच कर उसका मुह 
लगा  लेती है अपने स्तनों से 
बच्चा बदस्तूर रोता है 
उसकी सुखी छातियाँ 
मना कर देती हैं दूध की बून्द टपकाने से 
भाग पड़ती है वह 
बच्चे  के लिए 
पाव दो पाव दूध लेने 
वह पिलाती है अपने बच्चे को दूध 
जो लाई है वह 
अपने स्तनों का दूध 
किसी चौधरी को पिलाके। 

लोग कसते हैं  
उसपे अश्लील फ़िक़रे 
पूछते है हॅंस हॅंस के 
उसकी देह का किराया 
और वह बच्चे के दूध के लिए 
निचुड़वाती है 
अपनी छातियों का दूध 
जो बंज़र पड़ी हैं 
न जाने कितने सालो से 
आदिवासी धरती की तरह। 

---सुधीर मौर्य