बाद मुद्दत के आया मेरे ख्वाब में
पुरखार-ऐ-बयाबां इरम हो गया
उल्फत से खुल गई मिज्गा-ऐ-तश्ना
हाय ये क्या हुआ क्या गजब हो गया
दोशीजा-ऐ-नखवत की गिरी बर्क ऐसे
आशियाना-ऐ-मुहब्बत ख़तम हो गया
खेल-ऐ-उल्फत में था कितना पुरकार वो
देख ग़ुरबत रकीब-ऐ-सनम हो गया
कैसी उम्मीद अब नादां तुझको 'सुधीर'
ख्वाब आया तो यह करम हो गया.
सुधीर मौर्य 'सुधीर'
गंज जलालाबाद, उन्नाव
२०९८६९
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