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Wednesday, 19 September 2012

सात बसंतो का प्रेम...



ओ मेरे गावं की
नोखेज़ दोशीजा !
मेरी प्रियतमा...
मैंने महसूस किया है
तेरी पिंडलियों की 
थरथराहट को
उस वक़्त
जब म्रेरे होठों के लम्स से
तेरे होठ
भीगती रात में सरशार हुए...

अरी ओ रसगंधा !
मेरे जन्मो की प्रेयसी 
इसी जन्म में चुकणी थी क्या
तेरे बदन की मह्वाई  गंध
या आठवां जन्म था हमारा
जो तूं सात बसंतो की 
मेरी प्रीत को
भूल गई और
फाल्गुनी बयार में
एक गैर की शरीके हयात हुई...
यकीन मान, उसी दिन से
तेरी ज़ीस्त में दिन और मेरी रात हुई...

नज़्म संग्रह 'हो न हो' से...
सुधीर मौर्य 'सुधीर'

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